Monday, September 21, 2020

DAILY PRAYER TO GOD AS UNIVERSAL DIVINE MOTHER FOR WELFARE OF ONE AND ALL.




माई सहस्र नाम
माई सिद्धान्त
प्रार्थना समेत

लेखक
माई मार्कण्ड रायसाहब श्री मार्कण्ड रतनलाल धोलकिया गवर्नमेन्ट स्पेशल लैन्ड अक्वीजिशन आफीसर,कराची, पूना, बम्बई।

संस्करण ईस्वी सन 1944 संवत 2000

"माई निवास" सरस्वति रोड, सांताक्रुज (पश्चिम), बम्बई-400054

जय माई जय मार्कण्ड माई


विश्व कल्याणके लिये  माई प्रार्थना




यदि प्रेम ही माँ हैं, और मां ही प्रेम हैं, तो मैं मां का हूँ और माँ मेरी हैं । मां पाठकों को आशीर्वाद दे अपने भक्तों को आशीर्वाद दे, भोर तेरो शरण चाहने वालों को भी आशीर्वाद दे। जो भी तेरे पवित्र नाम जप करे, उस पर तू प्रसन्न हो । तू अपने उस प्रत्येक भक्त के छोटे से जगत को अत्यंत आनन्दमय, संतोषमय, सुखमय और हर्षमय बना, जो तुझे (अपनी साधना से) तुष्ट और प्रसन्न करता है।
शासक शासितो को धर्म-पथ की ओर अग्रसर करे। सब के भाग्य में कल्याण की वर्षा हो। सम्पूर्ण विश्व अन्न, जल, सन्तोष-भावना और समृद्धि से आनन्दित हो ।
अपने भक्तों को शान्ति और चिरानंद में निर्भयता से रहने दे । सभी प्राणियों को अपने कर्तव्य निर्वाह में और अपने प्राध्यात्मिक कल्याण-प्राप्ति में चिरानन्द का आस्वाद लेने दे।
दुष्टों को सज्जन बना। सज्जनों को उनको मानसिक शान्ति प्राप्त करने में सफलता दे । शान्त प्रात्माओं को मुक्ति प्रदान कर ।  वे मुक्त आत्माएं जिन्होंने दूसरों की सहायता, प्रेम और सेवा करना प्रपना ध्येय बनाया हैं, उन्हें अपनी दया और गुरुकृपा से प्रेरणा और  सहायता दे ।
कष्टों से सभी मुक्त हों, सभी ज्ञानी हों, और साधुता को प्राप्त करें। प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति को सर्वभौमिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में  आनन्दित हो ।
मां सब को सुखी और सम्पूर्ण चिन्ताओ, रोगों और आपदाओंसे से मुक्त कर, प्रत्येक को, जो सर्वोत्तम है, दिव्य है, सर्वोच्च और शुभमय हैं, उसका आनन्द प्राप्त करने योग्य बना ।

जय माई, जय मार्कण्ड माई.
जय मार्कण्ड रुप माई जय मार्कण्ड रुप मार्कण्ड माई
जय माई जय मार्कण्ड माई

प्रार्थना 

(१) हे मां मुझे अपना जीवन सत्यनिष्ठा,पवित्रता, संयम और दानशीलता से बिताने की शक्ति दे।
इन चार शब्दो में से प्रत्येक के अन्त पर कुछ क्षण रुक कर प्रार्थना कीजिये।
(२) हे मां मैं कभी भी असत्य न बोलू, किसी को भी कष्ट ना दूं, दूसरे के धन और सम्पति के प्रति लोभ न करू, मुझ में विषय वासना की उत्तेजना न हो, मुझे शरीर को इन्द्रियाँ और मन कोई भी ऐसा कार्य करने के लिए पथ भ्रष्ट न करें, जो तुझे प्रिय न हो। (३) हे माँ इन छः दुर्गुण -क्रोध, अहम्, लोभ, मोह, ईर्ष्या और तृष्णा जो मेरे स्वामी बन बैठे हैं, उन की दासता से मुझे मुक्त कर । 
(४) हे मां, मुझे जो कुछ भी मिला है, उसमें ही संतोष करु, इस प्रकार को छः शिक्षा दे।
सांसारिक आनंद प्राप्ति का मेरा मोह (वासना) क्रमशः विलीन होता जाये, तू मेरी सहायता मौर रक्षा करती रहेगी, इस बात में मेरा पूर्ण विश्वास हो। मैं अपना भार पूर्ण धैर्य और सहनशीलता के साथ उठा सकू, इस योग्य बना ।।
 
भूमिका
माई और माईसहस्रनाम नामक एक बडा ग्रन्थ ७०० पृष्टोके ऊपरका चार भागोंमें अंग्रेजीमें छप चका है, उससे अंग्रेजी पढे। कई माई भक्तोंको तो संतोष हुआ लेकिन जो भाई बहिनें अंग्रेजी नहीं जानते वे इस ग्रन्थसे लाभ नहीं उठा सकते और यह इच्छा प्रकट करते हैं कि माईके हजार नामोंके मूल संस्कृत या अंग्रेजी का सक्षिप्त हिन्दी अनुवाद हो तो उससे जनता अच्छी तरह लाभ उठा सके। इस इच्छाके फल स्वरूप माईसहस्रनामका संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद माईके चरणों में स्वल्प भेंट रखा जाता है।
संस्कृत भाषा के अठारहवें पुराण में ललितसहस्त्रनाम नामक अत्यन्त गूढ और गुप्त मन्त्र शक्ति से परिपूर्ण परम सिद्धिदायक नामावाली है। वही यह माईसहस्त्रनाम है। मात्र अर्थ और अनुवाद में उच्च विश्व-दृष्टिसे सच्ची धार्मिक व्याख्या की गयी है।
मनुष्य भूलोंका भण्डार तो है ही उस पर मैं तो मां का नालायक बेटा ठहरा, इसलिये त्रुटियोंका होना तो स्वाभाविक ही है। उसपर मैं न या आशाको हाथमें लेकर आगे बढ़ता हूं कि मां और उसके भक्त करुणाके सागर है और मै जैसा भी हूँ मुझे अवश्य अपना लेंगे। अगर मां और उसके भक्तोने आगे चलकर आज्ञा की तो हिन्दीमें अंग्रेजी जैसा ही बृहद  ग्रन्थ छापा जाएगा । यह नामावली जो अबतक गुप्त रहा है अब टूटी फूटी हिन्दी भाषामे  भक्तों के आगे रखी जाती है । इसके अनुवाद का श्रेय मेरे  परम मित्र आरै माई के अनन्य भक्त माई बन्ध बंशीधर चेलाराम वधिवाणी को है। उनके उत्साह और माई धर्म के प्रचार की लगनका यह फल स्वरूप है।

माई मन्दिर, हुबली १०-३-४४ शुक्रवार
माई-मार्कण्ड


॥ ॐ श्री जय माई ॥
माई संदेश
माई मार्ग का
विक्रम सं० २००० ईस्वी सन 1944

माई आज्ञा से मैं प्रसिद्ध करता हूं कि माई ने अपने माई मार्ग का द्वार सारी दुनिया के लिये चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा सं० २००० तारीख २५ मार्च १९४४ को खोल दिया है। माई धर्म दुनिया के किसी भी धर्म के अनुयायी के लिए वा बिगर धर्म वालों के लिए भी है। यह माई धर्म ईश्वर को माता स्वरूप माननेवाले कुदरती भावना के आधार पर रचा गया है । यह खास उनके लिए है जो माई धर्म का अनुसरण करना चाहते हैं, वा माई धर्म के सिद्धांत का पालन उसकी कृपा दया अथवा आखिर मोक्ष चाहते हैं। मां व्यक्त स्वरूप और अव्यक्त स्वरूप इन दोनो से परे है। वह सर्वगुण सम्पन्न है और निर्गुण भी है। वह जाति रहित है इसलिए न तो वह पुरुष है और न स्त्री । मगर दोनों ही है और दोनों से परे भी है। विश्व जिसको जगत पिता कहता है वही यह मां है । परमात्मा में मातृ-भावना या पितृ भावना का फर्क एक आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं है मगर यह तफावत उनके लिए तो बड़े महत्व का है जिनको धर्म की, ज्ञान की और साक्षात्कार की तीव्र महत्वाकांक्षा हो। माई धर्म का यह सूत्र है कि पिता तो न्याय है और माता करुणा है ।

माई माया नहीं, शक्ति नहीं, पिता की स्त्री नहीं, हिन्दुओं के पंचायतन देवों में की देवी नहीं, मां काली भी नहीं, ईसाइयों की मां मेरी नहीं, ईश्वर की दासी नहीं, और नहीं जादू विद्या की उपास्य देवी, न वामचार्यों की वामदेवी, और न दैत्यों की नाश करने वाली देवी । ऊपर कहे हुए सब स्वरूप माई के ही है मगर वस्तुता से माई अनन्त प्रेम और करुणा का सागर है और इन सब स्वरूपों
और शक्तियों से परे है । लौकिक माता के स्वरूप में ही मां को सर्वशक्ति मई सर्व व्यापक और सर्वेश्वरी माना जाय और माई भक्तों के लिए तो मां वैसे है जैसे बच्चों को लौकिक माता। माई मानव जाति की जन्मदात्री मां जैसी है क्योंकि वह आदि जन्मदात्री है। माई ईश्वर है, माई सर्वशक्तिमान है, माई सर्वज्ञ और सर्व व्यापक हैं। माईधर्ममें हरिजन अछूत नहीं है, स्त्री पुरुष की दासी नहीं है लेकिन अर्धांगी है और धर्म की निगाह से नरक का द्वार नहीं लेकिन पुरुष की धर्म सहचरी है।

माई धर्म में दूसरे धर्मों के धार्मियों के लिए मलेक्ष काफर या दुर्जन जैसे तिरस्कारिक शब्द नहीं हैं और निर्बल गरीब और निरक्षर की अवस्थाओं के दुरुपयोग की कोई जगह नहीं है अपेन अपने धर्म में रहते हुए कोई भी मनुष्य हिन्द माईमार्गी, जैन माईमार्गी, मुसल्मान माईमार्गी, या क्रिश्चन माईमार्गी बन सक्ता है।

जो मनध्य ईश्वर को नहीं मानता लेकिन जो प्राणीमात्र पर दया भाव और सेवाभावका जीवन जीता है वह भी माईमार्गी है क्योंकि विश्वरूपा यह माई का एक स्वरूप है और उसीका ही यह नास्तिक भक्त है।

माई धर्म की मुख्य मान्यताऐं:

(१) सब धर्मों की एकता (२) मनुष्य मात्र एक बड़े कुटुम्ब का अंग है (३) जातीय अभिमान, देश अभिमान, राष्टीय अभिमान, प्रजाभिमान, वर्णाभिमान से उत्पन्न होते हुए तिरस्कार-वृति वा भेद-वृति को निर्मूल करना ( ४ ) माई के प्रेम, करुणा, भक्ति वा दया पाने के लिए रोज के जीवन में भगिनी भाव वा भ्रातभाव के बर्ताव से जीवन जीना (५) उन्नति के लिये हरेकको अपने मार्ग पसन्द करने की पूर्ण स्वतन्त्रता देना (६) इस माग में आगे बढ़ने के लिए जरूरी वा गैर जरूरी बातों को विचार कर उनकी योग्यता तय करना । (७) धर्मको जुदाई, तिरस्कार, दबाव, बेइन्साफी, संशय और छल वा कपट का कारण नहीं बनाना (८) धर्म के काम में विज्ञान इत्यादि शास्त्र, तर्क बुद्धि, अन्त: करण अनुभव, मनुष्य स्वभाव और हरेक वस्तु स्थिति का अनकूल वा प्रतिकूल संयोग का अनादर न करना (९) अपन को दूसरे से श्रेष्ठ न समझना क्योंकि अपनी श्रेष्ठता मामूली, क्षणिक संयोगवश और अपने अकेले की कमाई की नहीं है। (१०) अपनी चित्त प्रसन्नता को कभी नहीं खोना क्योंकि माई कृपा से कुछ भी अप्राप्य और न सधर सकने जैसा नहीं है । 

माई धर्म के मूलतत्वः- ( १ ) ईश्वर के प्रति मातृभावना
(२) विश्वदृष्टि
साई धर्म के जीवन सूत्र:- (१) यथा शक्ति विश्व प्रेम (२) यथाशक्ति विश्व सेवा (३) माई भक्ति (४) माई शरणागति । सबस बड़ा पाप दसरे को मन बचन कर्न से दुःख पहुचाना है और सबसे बड़ा पुण्य दसेर को धार्मिक उन्नति में सहायता करना है।

माई की मातृभावना का जन्म सन १९३२ में हुआ और माईमूर्ति की स्थापना २-९-३२ को हुई और इस संस्थापना को चिरस्थायी करने के लिये ९-१०-३२ के रोज दशहरे के दिन पुणे में सर्वधर्मी भगिनियों का एक सम्मेलन सख्त परदे में हुआ, जिसमें ३०० से ज्यादा भिन्न भिन्न धर्म की सुशिक्षित बहनों ने शामिल होकर अपने अपने धर्म के अनुसार प्रार्थना की थी। माई की पूजा कितने ही स्थानों में चल रही है और उसका पवित्र माई नाम हजारों मनुष्य जप रहे हैं । माई कृपाके अनेक अत्यन्त आश्चर्यजनक प्रसंगोंके अनुभव हुए है । कितने ही शहरों और ग्रामोंमें माई मन्दिरोंकी स्थापना हुई है । माईके हुक्म होने पर तेरह करोड़ माई नाम जप की लिखित संख्या देखते देखते में हुई है।

सन् १९३३ में सर्व धर्म परिषद् नासिकमें माई धर्मके सिद्धान्त पर व्याख्यान दिये गये थे और सन् १९३५ में नौवीं इण्डियन् फिलासोफीकल कांग्रेस पूनेमें अर्वाचीन संस्कृति और माई मार्गकी विशेषता पर जोरदार निबन्ध पढ़े गये थे।

माई और माईसहस्रनाम नामक ७०० पृष्ठोंके ऊपरका ग्रन्थ छप चुका है जिसमें माई धर्म के सब सिद्धान्त अच्छी तरह से समझाये गये हैं यह तो उसका अंश मात्र है।
माई कपा वृष्टि होने पर पूर्ण दीनतासे मेरा इरादा है कि माईकी यथाशक्ति छोटी मोटी सेवा करना शुरू कर दूं और इस इच्छासे मैंने देशपाण्डे नगर, हुबलीमे माई आश्रमके लिये जमीनका छोटा सा टुकडा खरीद लिया है।

श्रीमंतोंकी सहायतासे आर्थिक मदद मिलने पर माई मार्गियों के लिये निम्नलिखित कार्यक्रमका विचार किया गया है ।

(१) ईश्वर के किसी भी नाम और रूपका, किसी भी भाषामें और कौनसे भी धर्म के संत या भक्तके भजन कीर्तन प्रार्थना करना वा कराना, व्याख्यान करना वा कराना, धार्मिक ग्रन्थोंका ज्ञान फैलानेके लिये क्लासिस् शरू . करना और धार्मिक उन्नति के लिये देशाटन करना चा करवाना ।
(२) स्कूल, कालेजिस्, मसजिद, मंदिर, देवलों और सम्मेलनों में प्रार्थना करना वा करवाना।
(३) साकार अथवा निराकार माई पूजन लोगोंके अनुकूलता अनुसार करना वा कराना।
( ४ ) जातीय धार्मिक अथवा वर्ण के भेद रहित कुटुम्बोंकी बहनों वा भाईयोंकी अथवा मिश्रण प्रार्थना वा सम्मेलन करना वा कराना ।
( ५ ) सर्व धर्मोके साहित्यका अबलोकन, अभ्यास और प्रचार करना वा कराना और भिन्न भिन्न धर्मो के ग्रन्थोंसे संक्षिप्त सार छपवा कर प्रगट करना वा कराना।
(६) गरीब कुटुम्ब और योग्य विद्यार्थियोंकी आर्थिक मदद करना वा कराना । अनाथाश्रम, विधवाश्रम और दूसरे जरूरतवाली संस्थाओंकी सहायता करना वा कराना । विवाहित स्त्री पुरुषोंको दाम्पत्य मार्गका उपदेश करना और सद्गत जीवात्माओंको शान्ति देना।
(७) रोजके जीवन में भगिनि और भ्रातृभावका बर्ताव करना वा कराना।
(८) जातीय, प्रान्तीय वा राष्ट्रीय धार्मिक वा सामाजिक मतभेदोंको दर करना वा कराना और उनके बीच प्रेम सलह और शान्ति कराने का प्रयत्न करना वा कराना ।
(९) कोई भी नामसे, किसी भी धर्म के हस्तगत, किसी भी शहर वा ग्राम में माई मन्दिर माई आश्रम वा माई नगर खोलना वा खुलवाना बांधना और बँधवाना।
माई सबका कल्याण करे । माई कृपा सबकी उन्नति करे ।

माई की करुणा सबकी रक्षा करे । माई की आशीश कृपा और दयासे सारा विश्व सुखी समझदार शान्त अहिंसक विश्वष्टि वाला ईश्वरसे डरनेवाला और उसको चाहनेवाला बने।।

माई कृपासे हरेक की व्याधि आपत्ति दोष और न्यूनता मिट जावे । हरेक को सत्य और असत्य, भले और बुरेकी समझ पैदा हो, हरेक उच्च आचार विचारका जीवन जीवे और कोई किसीको हैरान परेशान न करे । दुर्जन सज्जन हो जावे सज्जन सयाना, भक्त मुक्त हो जाये और मुक्त हुई आत्माएँ दूसरों को मुक्त करें।

मां तेरे चरणोंमें शरण आये हुए भक्त जीवात्माको असत्यसे सत्य में अंधकारसे प्रकाशमें और मृत्युसे अमरत्वमें ले जा ।

शुक्रवार माई मन्दिर हुबली १०-३-४४

माई मार्कण्ड प्रेसीडेण्ट और संस्थापक माई मार्ग
ॐ श्री जय माई

     प्रार्थना

(1)  मा मुझे अंधकारसे प्रकाशमें ले जा, अज्ञानसे निकालकर ज्ञानके पंथ पर चला दे असत्यसे खैंचकर सत्य की तरफ भेज दे मेरे मृत्यु तुल्य जीवनको अमृत तुल्य बना दे ।
(2) मां तू संतुष्ट होती है तब सारा विश्व संतुष्ट हो जाता है। तु जब प्रसन्न होती है तब सारा विश्व प्रसन्न हो जाता है । मां इसलिये तु मेरे उपर प्रसन्न और संतुष्ट हो जा । 
(3) मां तेरे शरणमें आये हुए दीन बालकोंको आनन्द, शान्ती और निर्भरता प्रदान कर और आपत्ती निवारण तथा विघ्न नाश होनेका वरदान ापने वरद हस्तसे दे दे ।
(4) मां दुनियाको सज्जन बना दे , सज्जनोंको शान्ती दे, जिन्होने शान्तीकी प्राप्ती कर ली है उनके बन्धन तोड दे 
और जो मुक्त हो गये है वे दुसरोंको मुक्त करनेके लिये पूर्ण रुपसे प्रयत्नशील हो । 
(5) मां अपने भक्तोंको रोगसे मुक्त कर आपत्ती और भयसे छुडा दे , शरीर तथा बाहरी उपाधियोंसे मुक्त कर उनको अच्छा क्या है यह सिखा दे ताकि वे पवित्र और भलाईका जीवन जी सके । उनके हरएक कार्यके पीछे विश्व प्रेम और विश्व सेवाका ध्येय रूपी बीज बो दे और अपने भक्तो तथा सब लोगोंको आनंद कराओ ।  
(6) मां तेरे ध्यानका उपदेश करनेवाले भुल जाते है कि तू निराकार है। तेरी स्तुति करनेवाले या गानेवाले भी यह बात भुल जाते है कि तेरा वा तेरी करूणाका वर्णन कर सकनेमे कोई भी समर्थ नही है । तेरे लिये तीर्थाटनका उपदेश करनेवाले बडी भूल कर रहे है क्योंकि तू हर जगह विद्यमान है और भक्तोंके ह्रदयमै तो तेरा वास ही है । मुझमें तो ध्यान भी होनेका नही है और न स्तुती ही होनेकी है और तेरे दर्शनके लिये मै तो अपने बिस्तरसे उठनेवाला भी नही हुं लेकिन तुने एक मां की तरह किस हौशियारीसे उसका बचाव किया और चुप करा दिया , बस इसीसे खुश हो जा । तेरे नालायक लेकिन मुक्ती चाहनेवाले बातूनी पुत्रपर तेरे वात्सल्य भावसे खुश होजा क्यों कि तू मां है न । 
(7) अनेक मांसिक उपाधियों तथा शारीरिक व्याधियोंसे मेरा मन चंचल हो गया है । तेरी भरपूर करूणासे सच्चिदानन्द स्वरूप एक बार दिखा दे कि रोमांच और अश्रु प्रवाहसे सारा दुःख्ख भुल जाउं और जीवनभरके लिये तेरी शरणागतीमें आकर तेरे चरणोंसे लिपट जाउं ।
(8) हे मां, मेरी आत्मा यही कहती है कि सच्चा जीवन तो वही है कि जिससे राग, द्वेश, सांसारिक पामरता , मोहान्धताऔर मुफ्तका मूर्खतावश अपने हाथसे उत्पन्न किये हुए दुःख्ख न हो, और वही सच्चा अनुभव है कि जिसमें दुःख्खीके लिये करूणा और प्राणीमात्रके लिये प्रेम और सेवा भाव हो , इसलिये मां मुझे बस इतना ही दे , मातृ भावना , विश्वदृष्टी, विश्वसेवा, विश्वप्रेम, और तेरी आनन्द भक्ति, प्रसन्नचित्त आशारहित, इच्छारहित तेरे चरणोमें शरणागती । मुझे और कुछ भी नही चाहिये ।
(9) मां तेरा धाम अगम्य है, रास्तेमें परिक्षक बहुत है, विघ्न भी कुछ कम नही है । इसलिये वहा मेरा आना नही होगा । तू मुझे अपने किसी भक्तका दासानुदास बना दे जिसके ह्रदयमें तेरी तस्वीर वराजमान हो और तेरी तस्वीरकी अत्यन्त सुगमतासे मै भक्ति कर सकूं । मां, भीख मांगनेवाले बेशर्म होते है, मांगनेवाला भूल जाय, तिस पर तेरी जैसी मांकी दृष्टी पडे तो फिर मेरे ह्रदयमेंही विराज हो जा न, ताकि दुसरे भक्तोंकी खोजही खतम हो जाय । 
(10) मां, तू दयाका सागर है, दयाकी मूर्ति है, तेरी आंखोसे दयाका स्त्रोत बह रहा है, तेरे ह्रदयकी एक एक कणमें करूणा भरी हुई है । तेरे निकट अाकर भिक्षा न मांगू तो तेरे चरण छोडकर और कहा मैं जाउं ? 
(11) मां, तीर्थयात्रा, तप, दान, पुण्य और यज्ञ जो कुछ भी मैने किया हुआ है, मै समझता हूं वह सब तेरे स्मरण और नाम जपके प्रभावसेही किया हुआ है । तू मेरा सर्वस्व है , सबकुछ तेरी ईच्छाके आधीन है । तू सारे विश्वका रक्षण करनेवाली है तो फिर मुझे तेरी कृपा प्राप्त करनेके सिवाय और क्या करना होगा ? 
(12) यह विश्व चालनेवाली महान परम शक्ति तेरी है, विश्वको आधार देनेवाली शक्ति तेरी करूणासे एैसा करनेमे समर्थ है। परम शांती, परम सुख और परम आनंद तेरे चरणोमेंही है । पुर्णताको प्राप्त भक्तगण तेरीही करूणा कथा गाते है । संसार आसक्तीसे मुक्ति दिलानेवाली , मुक्तिके ध्येयसे प्रीती करानेवाली, सिध्द मार्ग दिलानेवाली, गुरूका मिलाप करा देनेवाली, उसकी कृपा प्राप्त करा देनेवाली, मुक्ति और भुक्ति दोनोही प्राप्त करा देनेवाली है । इस प्रकारके तुझे एैसे नामोंसे, पूर्णत्वको पहुंचे हुए ( भक्त, योगीजन ) घोषित करते है कि तू मुक्ति और भुक्ति प्रदायिनी है और शीघ्र प्रसाद देनेवाली है ।
(13 ) मां तु ब्रह्मस्वरुपिणी है, तु परमज्योती है, तु सब विद्याकी देनेवाली है । अगर तेरी करूणा न हो तो सारा विश्व निस्तेज , र्निवीर्य तथा निर्जीव बन जायेगा । तेरी करूणाको कोई नही जान सकता ।
(14) मां दसो दिशाओमें मुझे अंधकार, अज्ञान, मोह, पश्चाताप और मृत्युके सिवा और कुछ भी नही दिख रहाहै । मै चारो तरफसे, घेरा हूआ घबराया हूआ हूं , मेरी आखोंके सामने अंधेरा छा जाता है । मेरे पुरूषार्थके या विश्वकी किसी भी व्यक्तिसे आशाकी एक भी किरणसे अब मेरा जादा जीना नही हो सकता । तेरी अपनी करूणा और अपने प्रकाशके सिवाय मेरा उध्दार नही हो सकता । इसलिये अब तूही अपने हजारो सूर्यों जैसे ज्ञानका प्रकाश मुझपर फैला दे, हजार मेघराज जैसी करूणाकी वर्षा मुझपर कर ।
(15) मां तू सच्चिदानंद है इसलिये तू आनंद देनेवाली है और तू इस आनंदके उस पार है । तू भेदसे परे, गुणोंसे परे तथा तथा इच्छाओंसे परे है । मुझे मेरे तरह तरह के भेद, तरह तरह के गुण दोष तथा नाना प्रकारकी इच्छओं अभिलाषाओं वासानओंसे छुडा दे । ज्ञान, विद्या, साधना, सिध्दी सबका केन्द्र तेरी करूणा मात्र है, वह करूणा एकबार मुझपर करा दे ।
(16) हे मां, मेरा चंचल मन, हजारो तर्क वितर्क प्रलोभन और भयसे, मुझे नचा रहा है । संशयोंने मुझे व्यस्त कर दिया है । मुझे सतानेवाले इन संशय तथा अश्रध्दा रूपी राक्षस और राक्षसणीयों का पराजय कर, उनकी और मेरी मित्रता करा दे जिससे मुझे वे बुरे मार्गमें न ले जावे ,भले सभी आनंद क्यौ न करे। उन सबका विध्वंस करनेको मै तुझे नही कह रहा हूं , मुझसे वे छेडछाड न करे तो बस - एैसी कृपा मुझपर कर ।
(17) हे मां, मुझे गुरूकी सेवा करने दे, गुरू और शिष्यकी ग्रन्थी जोड दे । गुरू एैसा हो कि जो भेदसे परे हो, जो हमेशा भगवद् भाव जीवन जी रहा हो और जिसे शत्रु और मित्र समान हो, जिसका जीवनमात्र तेरी भक्तीका स्वरूप हो, जिसका काम सिर्फ यथाशक्ति अुकूलता अनुसार तथा योग्य लोगोंका कल्याण तथा उध्दार करनेवाला हो , जिसके दर्शन मात्रसे और जिसके उपदेशसे, जिसकी दृष्टी पडनेसे ही संसारिक पामरता का रोग मिट जाय ( एैसे गुरूकी सेवा करनेको मुझे वह मिल जाय ) । 
(18) हे मां, तेरे भक्तोंके लिये न कोई मित्र है न कोई शत्रु, न कोई भाग्यवान है न कोई भाग्यहीन, न कोई पापी है न कोई पुण्यवान, तेरे भक्तोंके स्पर्शसे सबका कल्याण हो जाता है। और अमरतत्व तो तेरी आखोंसे निकलती हुई करूणाकी एक बिंदुका छाया मात्र है । एक बार तो मुझे तेरे मुख देखनेका सोभाग्य प्राप्त करा दे कि तेरी करूणासे मै तर जाउं ।
(19) हे मां तू सारे जगतका काम लेकर बैठी है जिस तिसको उनके कर्मोंका फल दे रही है , अपने भक्तोंको समृध्दी देकर उनको अपनी तरफ धीरे धीरे आकर्षीत कर रही है । वासना और कर्म तथा उनके उपभोग  जो परंपरासे चले आते है उनका मूलोच्छेद कर उनसे मुझे छुडा दे क्योंकि इनका अन्तही नही होता । पूर्ण सुख तथा उनके हकपर पानी फेर देना और सुख तथा पुण्य सबकुछ निःष्काम बुध्दीसेतेरे चरणोमें समर्पित कर दूं एैसी बुध्दी प्रदान कर और एैसे जीवन जीनेकी अनुकुलता दे । मेरे सुख तथा उपभोग रूपी रस्सीयां तेरे हाथमे सौंप देनेकी मुझे अक्कल दे ।
(20) मां तू भक्तवत्सल है, तू करूणाका सागर है, अत्यंत कोमल अति मधुर तथा सौंदर्यकी मूर्ति है । मै सुख दुःख्खके लिये नही रोता , प्रारब्धमें जो कुछ होगा वह सब भोगनेको तैयार हुं लेकिन एक बार तेरे दर्शन कराकरसुधिबुध्दी भुल जानेका अवसर मुझे दे।
(21) मां मुझे कुछ नही चाहिये ।न धन, न स्नेहीजनो,न सेवक सेविकाओं, न मित्र न सखी, न काव्यालापसे विनोद करनेवाली प्रेमी पत्नी,न कला कौशल, न काव्यरस, न कथारस, न उत्तम भोजनविलास तथा वैभव , बस एक ही वर दे देकि जन्म जन्ममे मै तेरी निष्काम अहैतुकी भक्ती किया करूं ।
(22) मां मेरे ह्रदय तथा स्वभावसेक्षणिक मिथ्या तथा निरर्थक संसारके सुखोंके लिये वासना, तृष्णा तथा मोहिनी दूर कर दे।
(23) मां  तूही मेरी मां है तूही पिता है तूही पति है तूही पुत्र है तूही सखी और तूही मित्र है । तूही स्नेही तूही गुरु है और तूही प्राप्तव्य है मै तेरा हूं तेराही अपना हूं मुझे जैसा ही गिनना हो गिन लेना। मै तेरे दासोंका भी दास हूं। मेरा आश्रय सिर्फ तेरे चरणोंमे है , मै अपना सारा बोझ तेरे उपर छोड देता हूं ।  
(24) मां तू अनाथोंकी मददगार है, पवित्र ईश्वरी प्रेम और करूणाका अपार सागर है। मै तो अनेक प्रकारके अनन्य पापोंका भण्डार हूं। मेरे पापो तथा अनिष्टोंका बल मेरेसे कम होनेका नही है और इनका अंत भी नही होता और उनके प्रलोभनके सामने मै ठहर भी नही सकता। मेरेमें जाती संस्कार नही शिष्टाचार नही आज्ञापालन नही और गुरू सेवा भी नही है । तेरे भक्तोंके सामने मै तो एक दो पैरोंका पशुही हूं । यह सबकूछ है और इसको मै बखूबी जानता भी हूं । लेकिन इन सबको होते हुए भी न मालूम मै क्यों निर्भय हो गया हूं और अपने भविष्यके संबंधमें लापरवाह हो गया हूं। इसका कारण यही है कि मै तेरे हजारो भक्तोंसे यह सुन चुका हूं कि तेरी शरणमें आनेवाला कभी निराश होकर वापिस नही जाता ।
(25) मां मुझे देहका सुख, लंबी आयु, नाना प्रकारके भोग जिसके लिये मनुक्ष्य जी रहे है और दौडा दौड कर रहे है , नही चाहिये । मुझे आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान भी नही चाहिये। मुझे तो सिर्फ तेरा नित्य समागम और नित्य सेवा करना हमेशाके लिये मिल जाय, तो बस इतना कर न मां ।    
(26) मां मुझे तेरी जैसी करूणाकी मूर्ति दूसरी नही मिलेगी और तुझे मुझ जैसा, तेरा कारूण्यमय होनेका पूर्ण रीतीसे जाननेवाला,व्यक्ति नही मिलेगा । तेरीही करूणासे सुदैव योगसेतेरी करूणाका महात्म्य जाननेके इरादेसेनिकली हुई मेरी नांव किनारे तक पहुंच चुकी है उसको डुबोना मत ।
(27) मां इस विश्वमें मुझसे जादा नालायक तुझे ढूंढनेपर भी नही मिलेगा। जैसे जैसे तेरी करूणा मेरे उपर होती जाती है तैसे मेरी भी उन्नती होती है लेकिन तेरी करूणा किसका क्या बना सकती है यह जाननेकी इच्छातेरे भक्तोमें कम होती जा रही है और इसके साथ साथ तेरी करूणाका प्रमाण भी कम होता जा रहा है। इसलिये करूणाकी धोडीसे बूंदीसे नही लेकिन अखण्ड वर्षा कर दे । करूणाकी एक जबरदस्त लहरसे मेरे जीवनको डुबो दे ।
(28) मां तेरे चरणकमलके प्रेमकी एक चिनगारी सांसारिकताके एक घने जंगलको भस्म करनेके लिये काफी है । एैसी एक चिनगारी मेरे ह्रदयमें जला दे जिससे मै इस जन्म जन्मांतरके फेरसे छूट जाउं और तेरी भक्ती और परमानंदमें विलीन हो जाउं । 
(29) मां , धर्ममें मेरी निष्ठा नही हैआत्माका मुझे कुछ भी ज्ञान वा होश नही है तरी भक्तीभी नही है तेरे चरणकमलकी महिमा भी नही जानता । मेरे पास पहलेकी इकठ्ठी की हुई कोई पुण्य कमाई भी नही है और तेरे सिवा कोई मुझे रखनेवाला भी नही है, यह स्पष्ट सत्य है जो मैने तुझे कह दिया । अब तुझे जो कुछ करना है सो कर । 
(30) मां मैने जो कुछ भी किया है, कर रहा हुं या करूंगा , वह सब मैने कह दिया तू सब कुछ करती है और करेगी । मै कुछ भी करनेवाला नही हूं । इसलिये इन सबका फलभोग तू ही करेगी मै नही , इसके होते हुए भीमुझसे कुछ भी करानेकी आज्ञा करनी है कर ले और उस तरहसे मुझसे काम करा ले ।
(31) हे मां, शरीरसे, भाषासे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुध्दीसे, आत्मासे, प्रकृतीसे, स्वभावसे, शब्दसे, विचारसे, कर्मसे , समझसे या बिना समझे जो कुछ मै करता हुं वह सब तेरे चरणमेम समर्पित कर देता हूं ।
(32) हे मां, मै हजारो अपराध करता हूं, किये है और करूंगा , फिर फिरके परंपरासे अनेक जन्मजन्मांतरोंमे भटकूंगा । मै निराधार हूं मेरे लिये क्या उपाय है वह भी मुझे मालुम नही इसलिये तो भूला भटका तेरे द्वारतकपहुंच गया हुं । मुझे अपना बना लें ।
(33) मां मुझे स्वर्गमें रख या पृध्वीपर , नरकमें भेज दे या पितरलोकमें, तुम्हे जो ठीक लगे वह कर लेकिन मेरी मान्यता तो एक ही है कि जिस जगह तेरे चरणकमलोंका स्मरन सदा बना रहे वह नरक हो तो भी वह स्वर्गही हैऔर जहां यह स्मरण भूल जाय वह स्वर्ग हो तो भी नरककें समान है ।
(34) मां मुझे शास्त्रोमें तथा पण्डितोंके दिये हुए उपदेशसे कल्याण होता है इस बातमें श्रध्दा नही है । संसारी कुटुंबिक कहे जानेवाले धर्मजो असलमें मोह के फन्दे है लेकिन जिनको अपने भाई बन्धु और संबंधी अपने स्वारथके लियेबडा स्वरूप दे देते है और मनुष्यता को पामरमें सदाके लिये डुबो देते है । श्रीमंत होनेसे सुख मिलेगा इस बातमें भी श्रध्दा नही है इस बातकी मान्यता वा विश्वास नही है कि भोगसे सुख वा आनंद मिलेगा । मेरे प्रारब्धके अनुकूल होना होगा होकर रहेगा । मेरी सिर्फ एक इच्छा है कि सब कामों में, सब संयोगो में , और सब अवस्थाओमें मेरे ह्रदयमें तेरे चरण कमलोंके प्रति जो थोडा बहुत झूठा सच्चा प्रेमका अंकर पैदा हो गया है, वह कुचल न जाय, बस इतना जो तू करे तो मुझ जैसे नालायकके लिये बहुत है ।  
(35) मां मुझे वैभव की इच्छा नही लक्ष्मीकी इच्छा नही ज्ञानी वा पंडित होनेकी भी इच्छा नही विद्या या मन्त्रसिध्दीकी भी इच्छा नही है । शरीरकी  इच्छा वा मुक्तीकी इच्छा भी नही है । सिर्फ इतनी भिक्षा मांग लेता हूं कि तेरा और तेरे भक्तोंका नामस्मरण मेरी जीभ वा ह्रदयसेएक क्षणके लिये भी दूर न हो ।
(36) मां तेरे कई हजार भक्त है लेकिन मेरे जैसा नालायक तुझे ढूंढनेपर भी नही मिलेगा । लेकिन यह बात कैसी भी क्यों न हो नालायक क्यों न हो सांसारिक माता भी एैसी संतानका त्याग नही कर सकती फिर तू तो सारे विश्वकी अनेककोटिब्रह्माण्डजननी ठहरी । तेरेसे यह बात होनी असंभव है इसी आशा पर मै अपना जीवन जी रहा हूं ।   
(37) मां मुझे तेरे अनन्त नामोंकी खबर नही और न तेरे अनन्त स्वरूपोंकी खबर है। तुझे प्रसन्न करनेवाले जप और पाठोंकी भी खबर नही है । मंत्रकाभी ज्ञान नही है तेरी मूर्तिऔर उसके पूजनकी विधी की भी खबर नही है। तेरी प्रार्थना और स्तुती कैसे और कि शब्दोमें की जाती है यह भी नही जानता । तेरा आवाहन किस प्रकार करूं यह भी नही जानता तो ध्यान की बातही क्या करू  । मेरा दुःख्ख तेरी करूणासे दूर कर दे यह बात किस तरह तेरे आगे रखू और गाउं यह भी तो नही सूझता, लेकिन एक बात जानता हूं जो बहुतसे तेरे भक्त कह गये हैकि तेरा स्मरण किसी तरहसे भी हो कल्याण ही करता है । 
(38) हे मां पारसमणि लोहेको सोना बना देती है । गटरका गंदा पानी गंगाजलमें मिल जानेसे गंगाजलकी तरह उसका आचमन लेकर तीर्थ यात्रा करनेवाले स्नान कर पवित्र हो जाते है । तो मै कैसा भी पापी वा अपवित्र क्यो नही हूं तेरे चरणोंके स्पर्शसेपापमुक्त और पवित्र नही हो जाउंगा ? और अनेक जन्मोंके अगणित पापोंसे मलीन और कलुषित मेरा ह्रदय क्यों सा्तविक और प्रेमी न बन जायेगा ? 
(39) मां इस जगतके सारे जंजाल तुह्मारे छुडानेसे छूट सकते है अन्यथा नही । जड और चैतन्यके संसर्गमें आनेसे जो मोह उत्पन्न होता है उसके प्रति तू क्षणमात्रमें वैराग्य पैदा कर सकती है , कर्ता और करानेवाली तू हैसब बाजी तेरे हाथमें है , भोग देनेवाली और भोगनेवाली भी तूही है । मेरे लिये तो पाप भी नही और पुण्य भी नही है , मेरे लिये तो बन्धन भी नही है और मोक्ष भी नही है ।
(40) हे मां मेरी इन्द्रीयोंको कब संयममें लायेगी ? मित्र और शत्रुके प्रती मेरे राग द्वेश प्रेम तिरस्कार से कब मुक्ती करेगी ? झूठी आशाए और बुध्दी जिस मोहिनी शक्तीसे मारी जाती है उसके फन्देसे मुझे कब छुडावेगी ? पापोंसे जर्जरीत हो गया हुआ मेरा मन कब शुध्द और सात्विक बनाएगी ? 
(41) मां शिवको जीव बनानेवाली है और्‍ जीवको शिव बबनानेवाली  तु है ।सब तेरीही लीला है तो फिर एक यह भी लीला कर दे न । यह नालायक भी तेरे चरणोंका प्रसाद पाकर शिव बन जाय ।
  (42) मां कोई  भी पुण्यकाम करना मैं नही सिखा और तीरथ यात्राके महात्यको भी मै नही जानता । भक्तिका मार्ग मैने सुना नही है । तेरे माई प्रेममें मेरी निष्ठा नही है और अपने अहंभाव और महत्वको किस तरह भूल जाउं इसपर मैने कभी विचार ही नही किया है ।यह सबकुछ मैने तेरी अचिंत्य कृपा और करूणापरही छोड दिया है ।
(43) मां दान और सखावत करनेके लिये साधन नही है ।ध्यान विधी मुझसे होती नही । स्तुतिके नाम जप किसी तरह बोल देनेकी होशियारी मुझमें नही है । पूजा करनेको मन नही करता है । आत्म निरीक्षण से अपने चरित्र सुधारनेकी कोशीश मुझसे होती नही । तो मां बोल मेरा क्या करना है ? 
(44) मां वेदांती भले बडी बडी बात बनावे कि समुद्र और तरंग एक ही है । यह सिर्फ मर्यादाके अर्थमें ठीक है और किसी खास तौरपर माननेकी इच्छा है तो एैसा माननेमें कोई हरज भी नही है । लेकिन सिर्फ एक बात अन्धेको समझाने जैसी है कि समुद्रसे तरंग निकलती है, न कि तरंगसे समुद्र । तेरे चरणोमें अनेक कोटी भक्त और ब्रह्माण्ड समा जाते है, तू भक्तो और ब्रह्माण्डेमें समाकर लय नही हो जाती ।
(45)  हे मां, मेरे अविनय और अहम को दूर कर मेरे मनको शान्त बना दे । इन्द्रियोंका दमन कर विषयभोगकी मृगजल समान तष्णाको शान्त कर दे। मनुष्य मात्र तथा प्राणीमात्रके प्रती मेरि करूणा और दयाकी उन्नती करऔर मुझे संसारसागरसे पार कर दे ।
(46) जैसा एक एक दिन गुजरता है वैसे आयु भी कम होती जाती है और जवानीकी कार्यशक्तीयां भी निर्बल हो जाती है ।जितने दिन बीत गये तो गये कालके मुखमें सारा जगत समा जाता है । धन दौलत, भाई बन्धु, स्नेही मित्र और संबंधी सभी, जो क्षण क्षणमें बदलते रहते है, थोडेमें खुश और थोडेमें नाराज पानीकी लहरोंकी तरह घडीमें उमड आनेवाली और घडीमें गुम जानेवाली है । जीवन शक्ती एैसे बह रही है जैसे सुराख किये हुए घडेसे पानीकी धारा बह रही हो । मनुष्य जन्मका सार्थक बनानेका मौका बिजलीकी तरह आता और जाता रहता है । मनुष्य जन्म कबपानीके बबूलेकी तरह फटकर गुम हो जाय इसका एक क्षणका भी भरोसा नही है ।इसलिये तूही मेरी रक्षा कर और मुझे अपनी शरणमे ले ले ।    
  (47) हे मां , विश्वमें तूही विश्वरूपिणी नामसे व्याप्त है, सारे जगतको तुही ज्ञानरूपिणी नामसे ज्ञानका प्रकास दे रही है , आनंदरुपी नामसे तू ही आनंदमयी होकर सारे जगतको आनंदीत कर रही है । सच्चिदानंदरूपिणी बनकर तूही अस्तित्व विद्या और आनंदकी बाढ लाती है । अत्यन्त उग्र तपस्या अत्यंत क्लेशसाधना योग तथा शास्त्रोंके उत्तमसे उत्तम ज्ञान से भी न प्राप्त होनेवाली लेकिन अपने भक्तोंकी तुच्छ मेहनतसे उनपर पुर्ण अनुग्रह करनेवाली तेरी करूणाको मेरे अनेक प्रणाम है ।    
(48) हे मां, मेरी आत्मा वही तू मेरी त्रिपुरसंदरी हैवही तू मेरी सहचरीकी तरह ही है । मेरे पंचप्राण वह तेरी सेवामें सौंपा हुआ यह दासानुदास ही है । मेरा शरीर वही तेरा मंदीर है , मेरा उपभोग ही तेरा नैवेद्य है, मेरी निद्रा तेरा ध्यान है, मेरा कही भी भटकना तेरी प्रदक्षिणा है , मै जो कुछ भी बोलता हूं वह तेरी स्तुती है , मै जो कुछ भी करता हुं वह सब अपनी भक्ती और पूजन समान ग्रहण कर ले । 
(49) हे मां, तू अपने सभी भक्तोंका कुशल और क्षेम निभाती है । अपने भक्तोंके कल्याणकी सारी चिन्ता तूही करती है ।इस लोक तथा परलोककी सिध्दीयां कैसे सिध्द करनी उसकी सूचना देनेवाली सिखानेवाली तथा सिध्दी करा देनेवाली तू है, बारह लोकोमें तू ही व्याप्त है , चर और अचर सभीमें तू व्याप्त है। तू सब प्रकारके ज्ञान देनेवाली है। तू करूणाका सागर है तू ही सबप्रकारके सुख देनेवाली है, मुझे तुझसे कुछ भी मांगनेकी जरूरत नही है । तू जिस वक्त जिस चीजकी जरूरत हो वह दे दे ले ले, तूझे जो कुछ भी करना है वह कर। मै तेरे द्वार पर धरना देकर बैठा हुं । 
(50) हे मां तेरे चरणोंका मै पूजन करता हूं और तेरे मुखारविंदका मै ध्यान करता हूं  । अपने ह्रदयमें तेरी शरणागतीको स्थापित करता हूं अपनी वाणीको तेरी प्रार्थना,और कीर्तनमें लगाता हूं । मुझसे जितना हो सकता है वह सब कुछ करता हूं , इससे जादा मुझसे नही हो सके तो इसमें मै क्या करू ? एक बार देवताओको भी दुर्लभ तू ापना करूण कटाक्ष मेरे उपर डाल ताकि मेरा मन भी शान्त हो जाय और मै तेरी भक्ती करनेके लिये लायक बन जाउं ।
(51) है मां तू दुखियोंका दुख दूर करनेवाली और अनाथोंकी आशाएं पूरी करनेवाली है । और मै सिर्फ दुखी ही नही अनाथ भी हूं । अपने उपर करूणा प्राप्त करानेकी योग्यतामें अभी क्या क्या कमी और बाकी है कह दे । किसी बातमें भी मेरे नालयकीमें अभी कुछ कसर बाकी हो तो कह दे , तो वह कमी भी पूरी कर दूं ताकि तेरी करूणाकी प्राप्तीकी लायकताके लिये, मै लायकोंमेसे अव्वल नंबरका लायक बन जाउं एैसी करूणा कर दे मां । 
(52) हे मां मेरे जैसा कोई दूसरा दयाका पात्र नही है और तेरी जैसी कोई दूसरी दयामयी नही है। तीनो लोकोमें तेरा सिवाय मेरा उध्दार करनेवाला और कोई नही कोई नही है । मै तुझे पुकार पुकारकर कह रहा हूं कि इतनी देरी किसलिये और क्यों कर रही हो ।    
 (53) हे करूणाकी मूर्ति मां मेरे शरीरसे, मनसे , वाणीसे, हाथ पैर आंख कानमें से  किसीसे भी हो गये हुए पापोंको मुझे क्षमा दे दे कि जिससे नया मन, नया शरीर, नया ह्रदय, नया जीवनसब कुछ तेरे दर्शन करनेक बादनया नया हो जावे और पुराना जितना भी है वो जाता रहे । 
(54) मां इतनी लडाइयां लडा मुहं फार फार कर मांग रहा हुं तब भी क्या तू करूणाकी वर्षा न करेगी ? न करेगी तो मेरे पास था क्या जो बिगड जायेगा , मगर तेरी वात्सल्य भावना दयालुता और करूणामय कीर्तिको धक्का लगेगा और दुनियावालोंका विश्वास जाता रहेगा । 
(55) हे मां दान कृपा और करूणा करनेका समय भी घडी घडी नही आता फिर तू तो बडी दानेश्वरी है और यही विचार तेरे मनमें घुमा करता हैकि कोई मांगे कोई मांगे लेकिन तेरेसे कोइभी नही मांगता अगर मनुष्योमें तुझसे मांगनेकी बुध्दी होती तो कोई भी दुःख्खी न होता।मै भीकारी तेरे द्वारपर आया हूं और फिर मेरी तो यह टेक है कि तेरे सिवाय दुसरे किसीसे नही मांगना। इसलिये एक बार तो मेहेरबान हो जा और अपनी भक्ती दे दे , जिससे फिरसे तेरेसे मांगना ही मीट जाएऔर तेरे पास हर वक्त चक्कर लगाती परेशान करनेवाली यह पीडा दुर हो जाए । मेरे पल्ले एक बार अपनी भक्ती बांध देकि यह पीडा हमेशाके लिये मीट जाय ।

ॐ शांती शांती शांती ।

दासानुदास माई मार्कण्ड 

Extract from the book: 
माई सहस्रनाम माई सिध्दांत प्रार्थना समेत
लेखक - माई मार्कण्ड
राय साहब श्री मार्कण्ड रतनलाल धोलकिया ।

॥ माईसहस्रनाम पाठ ॥

जैसे पीछे माई सिद्धान्त में कहा गया है माई की कृपा तब प्राप्त होती है जब माई सिद्धान्त अपने रोज के जीवन में अमल में लाये जावें । लेकिन संसार के प्रपंचों में फंसे हुए लोगों को, जिनको संस्कारों के अभाव, मन-संयम और सुविचार आदि की कमी से, प्रतिकूल संयोगवश हमेशा अशान्ति में रहना पड़ता है, कमसे कम नामजप पाठ अवश्य करना चाहिये । नाम जपपाठ वा पारायण से थोड़े ही श्रमसे बहुत ही पुण्यकमाई लौकिक वा पारलौकिक कठी की जा सक्ती है । जिस तरह श्रीमन्त आदमी पैसे की मदद से लौकिक सुख उठा सकता है वैसे ही नामजप वा पाठ पारायण के पुण्य से सहज ही में जीवन सुखी बन सकता है, इसी गुप्त रहस्य को समझ कर इहलोक और परलोक का सख चाहने वाले लोगों को चाहिये कि वे इस सहज-प्राप्य माई नाम जप वा माई सहस्र नाम का नियमित पाठ वा पारायण कर अपनी पण्य कर्माइ को बढाते जाय जिससे दु:ख वा आपत्ति के समय में उसका सदुपयोग हो सके।

माई सहस्रनाम के पाठ की एक विशेषता यह है कि सप्तशती अर्थात चण्डी पाठ के पारायण में 'भार्या रक्षतु भैरवी' के बदले पाठ में भूल होने से “भार्या भक्षतु भैरवी' का अनर्थ हो सकता है वह भय माई सहस्रनाम के पाठ में नहीं है माई सहस्त्रनाम में कठिन शब्द प्रयोग वा गहन विचारों की तर्क जाल नहीं है यह तो एक सीधी सहज ही में समझ में आने योग्य नामावली है।

माई सहस्रनाम पारायण से सर्व प्रकार की पवित्र और निर्दोष मनोकामनाएं मुक्ति और पूर्णता कैसे प्राप्त होती है यह सब विस्तार अंग्रेजी ग्रन्थ में ‘फल श्रुति' के विभाग में दिया गया है यहां स्थानाभाव से उसका उल्लेख नहीं  किया जाता ।
माई सहस्रनाम शुरू करने से पहले माई पूजन प्रकार वा उपचार पर थोडा लिखना आवश्यक है क्योंकि जैसी भावना वैसा फल होता है।

माई पूजन निम्न प्रकार से हो सकते हैं -
(१) बाह्य या आन्तरिक ( २ ) जड़ वस्तुओं के साधन से या मानसिक कल्पना से (३) एकान्तिक या सामुदायिक ( ४ ) स्तुति वा स्तोत्र से या उसके सिवा (५) सकाम भावना से या निष्काम भावना से (६) जीवन त्रुटियों के विचार और पश्चाताप से बा इसके सिवा ( ७ ) ध्यान से या बगैर ध्यान के (८) चैतन्य स्वरूप से गुरु शरण भाव से या निजी बल पर आत्मभाव से ।

माई पूजन स्थान

मन्दिर में, घर में, शरीर से, हृदय से, आकाश में या मन से हो सकता है माई की पूजा कहां भी हो किस तरह से भी हो लेकिन माई का स्मरण हर समय और हरेक दशा में रहे यही माई धर्म का सीधा और सरल सिद्धांत है।
माई पाठ के प्रारम्भ करने से पहिले अपनी मनोवृत्ति को निम्नलिखित विचारों में स्थिर करना चाहिये।

(१) माई सिद्धान्त के अनुसार जीवन जीने पर माई प्रसन्न होती है । (२) बड़े छोटे, श्रीमंत गरीब, सुशिक्षित अशिक्षित, पुण्यवान पापी, सब प्रकार के भेदभाव पाठ पूरा होने तक मनसे दूर रहने चाहिये ।। (३) पाठ में बैठे हुए सारे भाई बहन है उस समय के लिये पति पत्नी भाव पिता पुत्र वगैरह भाव भूल जाने चाहिए । और यह विचार मन में हो कि बैठे हुए सारे एक मां के बच्चे हैं। (4) पाठ के समय मन में मुख्य भावना यही होनी चाहिये कि माई सारे विश्वका कल्याण करे, सारा विश्व सुखी हो (५) पाठ प्रेम की भावना' से करना चाहिये । उसमें दिखावा, मत्सर, अभिमान, लोभ वा स्वार्थं वृत्ति नहीं होनी चाहिये । (६) अपने दुःख सुख, अपनी मूर्खता, अपने दुष्कर्म का दोष दूसरों के ऊपर न रखना और यह समझना कि दुःख मेरी ही भूल का परिणाम है उसके लिये न तो और कोई और न माई जवाबदार है। (७) पाठ करने के समय यह विचार मन में कभी नहीं लाना कि जो पाठ नहीं करते हैं उनसे मैं श्रेष्ठ हूं । नम्रता के सिवा धार्मिकता वा उसका फल कभी नहीं प्राप्त होता ।

माई पूजन का समय

इस महान कलिकाल में आत्म कल्याण के लिये किसी तरह की सुविधा शक्ति और अनुकूलता नहीं है। स्नेही मित्र, पति पत्नी, पुत्र पुत्री, माता-पिता और पड़ोसी सभी अपनी-अपनी सांसारिक चिंताओं और झंझटों में इतने फंसे पड़े हैं कि कोई भी एक दूसरे को इस काम में सहायता वा उत्साह नहीं दे सत्ता । सद्गुरु मिलना दुर्लभ है और सौभाग्य से अगर मिल भी जाता है तो उसकी सेवा दुनिया के लोगों से होती नहीं और बिना सेवा गुरुसे निकाला हुआ ज्ञान कुछ फल नहीं देता। ऐसी स्थिति में अत्यन्त सुलभ साधन नाप जप और पूजन ही है । माई मार्ग सिद्धांत से नाम जप तो आखिरकार करुणा के लिये पुकार है और पूजन, चरण पकड़ने के लिये आखिर की क्रिया और आखरी इलाज है। स्तुति का सार बस इतना ही है कि " हे मां मैं तेरा था तेरा हूं अब दिल चाहे सो कर ।" ऐसी हालत में सांसारिक लोगों को जब भी समय मिले उस वक्त नामजप वा पूजन करना चाहिये यद्यपि माई पूजन के लिये सबसे उत्तम समय तो शुक्रवार की मध्य रात्रि का है । समुदायिक माई पूजन का महत्व बड़ा है खास कर वह | समुदाय जिस में भिन्न भिन्न धर्मज्ञानि और समाज के व्यक्तियों का समूह पाठ करने वाला हो ऐसे पूजन से माई को बहुत प्रसन्नता होती है । विश्व भावना और पवित्र वायुमण्डल उत्पन्न करने के लिये कृष्ण, शिव, देवी आदि देवताओं की और ब्रह्म की एक एक नाम धुन करनी चाहिए जिससे भेदभाव का अज्ञान और अंधकार हृदय से हट जावे और अन्त में माई नाम धुन कर आगे का जप पूजन आरम्भ करना चाहिये ।

माई पूजन विधि के उपचार:

प्राथमिक (८) उपचार:
आचमन, प्राणायाम, संकल्प, भूः शुद्धि, भूतशुद्धि,आसन, न्यास और ध्यान । 
मुख्य पूजन १६ उपचार:
आवाहन, आसन, पाद्य, आचमन, अभिषेक, अर्घ्य, वस्त्राभिधान, आभूषण, परिधान, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, दक्षिणा और फल ।
 अन्तिम पूजन ३ उपचार:
मंगल निरञ्जन ( आरती ) स्तोत्रप्रवचन और प्रदक्षणाप्रणाम, विसर्जन पूजन ।
पुनरागमन विज्ञप्तिः
माई सहस्रनाम पाठ के आरंभ करने से पहले नाम जप (नं. १) मंत्रघोष (नं.२) आवाहनस्तुति (नं. ३) अपराधक्षमा स्तुति (न.४) ध्यान और आवाहन ( न.५-६ ) देवीसूक्तनपस्तोत्र ( न.७ ) माई आरति (न.८) खड्गमाला (न.९) और संक्षिप्त माई सहस्रनाम (न.१०) का पाठ क्रमसे करना चाहिये ।

(१) नामजप--इसमें पांच नाम मुख्य हैं। मां, माई, मार्कण्डमाई, मार्कण्डरूपमाई, मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई ।
मां-बह्म, निर्गुणब्रह्म । 
माई-ईश्वरी अर्थात मायाविषिष्ट ब्रह्म ।
मार्कण्ड - जीव।
माईमार्कण्ड - माई की भक्ति से युक्त जीघ ।
मार्कण्डरूपमाई - जो अपने भक्त की मां बनकर भक्त का कल्याण करती है वह मां।
मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई-जो भक्तके हृदय में निवास कर जीवों का कल्याण करती है वह मां।
ब्रह्म मां है, इश्वर वा ईश्वरी माई है, जीव सो मार्कण्ड, भक्तजीव सो मार्कण्डमाई, भक्त जीव के हृदय में निवास करने वाली माई वह मार्कण्डरूप  माई और भक्त जीव के निमित जगत का कल्याण करने वाली माई सो मार्कण्डरूप मार्कण्डमाई।
(२) मंत्रघोष:-इसमें दिये हुए मंत्र सब बीजाक्षरों के बने हुए हैं इसलिये इनको बीज मंत्र कहते हैं ये मंत्र बड़े प्रभावशाली हैं क्यों कि बीज से वृक्ष होता है, इनमें मुख्य छ हैं। ऐं, ॐ, ह्रीं, श्री, क्लीं, सौः
ऐं--प्रेम मयी मां। ॐ-देवी संपति देने वाली मां। ह्रीं - ज्ञान देने वाली मां । श्री--लक्ष्मी, सुख, वैभव देने वाली मां ।
क्लीं  -सिद्धि देने वाली मां । सौः--हरेक तरह की न्यूनता पूरी कर पूर्णता को पहुंचाने वाली मां।
 (३) आवाहन स्तुति की भावना- इस स्तुति में पाठ करने वाला याचना करता है।
मैं पवित्र हूं या अपवित्र माई स्मरण से बाहर अन्दर शुद्ध ही हूं। गुरु को प्रणाम, गुरु पादुका को प्रणाम, अन्तरिक्ष देवी देवताओं को प्रणाम, आचार्य और सिद्धेश्वरों तथा उनकी पादुकाओं को प्रणाम, माई-पादुका को प्रणाम, पृथ्वी-माई को प्रणाम, माई मुझे स्थिर कर, मेरे आसन को पवित्र कर । इस लोक तथा परलोक में विघ्न डालने वाले सभी भूत पिशाचों का तेरी कृपासे निवारण हो । महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती और दुर्गा को प्रणाम, ऐं स्वरूप अष्टभजा (आठ हाथवाली) ह्रीं स्वरूप अष्टादश भुजा (अठारह हाथ वाली ) क्लीं स्वरूप दशानना ( दस मुखघाली ) मां को प्रणाम, गौरी सहित शिवजीको, सावित्री सहित ब्रह्माजी को, लक्ष्मी सहित विष्णु को प्रणाम, महिष को ( मनुष्य के पशुत्व को) सिंह को (मनुष्य के धार्मिकता को) प्रणाम । सुखदुःख की महादशाओं को आधीन करने वाले फाल को प्रणाम और अमूल्य मनुष्य जन्म को आत्माके हाथों से क्षणभर में छीन लेने वाली मत्यु को प्रणाम ।" (४) अपराध क्षमास्तुतिः-इस में पाठक याचना करता है।
"हर रोज हजारों अपराध मुझसे होते हैं अपना दास समझकर क्षमा करदे मुझे कोई ज्ञान नहीं, आवाहन ( बुलाना ) विसर्जन वा पूजन की मुझ में समझ नहीं, मंत्र नहीं, विधि नहीं, भक्ति नहीं, जो कुछ मैंने किया है उसको पूर्ण मानले। सौ अपराध करनेपर भी जो तेरा नाम पुकारता है वह ब्रह्म और देवों की समानता पा जाता है, हे जगदम्बिके मैं तेरी शरण आया हूं मुझ पर दया कर मैं जैसा भी है तेरा हूं मेरा जो कुछ करना हे कर मैं तैयार हूं, अज्ञान वश, भूल से या भ्रममें पड़कर जो कुछ कमी या अधिकता मुझसे हुई हो वह सब क्षमाकर मुझपर प्रसन्न हो जा, तु सचिदानन्द स्वरूपिणि है सब कामनाओंकी पूर्ण करने वाली है जो कुछ हुआ है उससे प्रसन्न हो जा । तेरी लीला करुणा गुह्य से भी गुह्य है तेरी कृपा करुणा से मेरे सब कामों की सिद्धि हो।"
ध्यान:-माई की भिन्न भिन्न भावनाओं से कल्पना कर सभी देवियों का आवाहन किया गया है वह निम्नलिखित है:
महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, दुर्गादेवी, कुलदेवी, नवकुमारिका (कुमारी, त्रिमूर्ती, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, चण्डिका, शांभवी, दुर्गा और सुभद्रा),  नवदुर्गा (शैलपुत्री, ब्रह्म चारिणि, चन्द्र घण्टा, कुष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनि कालरात्री, महागौरी और सिद्धिदात्री) नव महाविद्या देवियां:- (मातंगी, भुवनेश्वरी बंगला, धूमावती, भैरवी, तारासुन्दरी, छीन्नमस्ता, भगवती, श्यामा और रमा सुन्दरी, ) बाला स्वरूप में बालात्रिपुरसुन्दरी, प्रौढा स्वरूपमें महात्रिपुरसुन्दरी सब देवियों से ऊपर माई।
(६) आवाहनः-जो माई कमल पर पूजने पर, उस पर प्रेम करने पर और विश्वके सभी जीवों पर प्रेम करने पर बाल प्रेम अर्थात अपने भक्त बालोंपर प्रेम करने से सब कुछ करती है और उसी प्रेम में ही हमेशा आनन्दित और उल्लास से भरपूर रहती है, जिसके एक हाथ में कल्याण और भक्तों के पूजन के लिये कमल है जिसका दूसरा हाथ वरदान देनेवाला वरदहस्त है और जो इस हाथ से भक्तों को उनके विश्व की निष्काम सेवा के महा परिश्रम से प्रसन्न होकर इच्छित वरदान देती है, जो तीसरे हाथ में पकड़े हुए अंकुश से भक्त के मन संयम को बढ़ाके भक्ति बढाती है और जो चौथे हाथ में पकड़ी हुई ध्वजा के आश्रय नीचे शरणागत होकर रहने वाले भक्त का कल्याण करती है ऐसी जगत को पावन करने वाली माई का हम आवाहन करते हैं ।
जो वात्सल्य भावके अमृत की वर्षा करनेवाली है, रससे भरी है, करुणा का सागर रूप है हमेशा कलोल अर्थात आनन्द की परम अवधि से किलकिली ( खिली ) हुई है, जो भक्तों को आनन्द देने वाली है जो अखिल विश्वकी जननी है, जो इस भयंकर कलियुग के समय में पापों से मुक्त करनेवाली है, जो शिव की शक्ति और ब्रह्म की माया से भी परे है, जो उसकी शरण में जाने वालों के लिये अत्यन्त सुलभ प्राप्त है, जो प्राणी मात्र को प्रेम करने वालों पर प्रसन्न होती है, जिसको मार्कण्ड ने प्रेम से पूजा है, जो हमेशा हसमुखी है और जो हमेशा  वर देने को तैयार है ऐसी माई के आश्रय में हम सब एकत्र होकर उसकी शरण में बैठे हुए हैं।" (७)देवी सूक्त स्तोत्र ( देवी कवच)-यह स्तुति सप्तशती के पांचवें अध्याय में है और इतनी शक्ति देने वाली है कि यह हजारों वर्षों से देवी प्रसन्नता के लिय प्रसिद्ध है। जो विष्णू माया के नामसे या चैतन्य नाम से लोगो में प्रसिद्ध है उस देवी को मेरे प्रणाम हों। जो देवी सर्व जीवों में बद्ध के रूपसे स्थित है उस दवा को मेरे प्रणाम हों और कुल २१ नामों से सम्बोधित है जो इस प्रकार हैं: विष्णुमाया, चेतन, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षान्ति, जाती, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, कान्ति, लक्ष्मी, धृति, स्मृति, दया, तुष्टि, भ्रान्ति और मात

(८) माई आरति-- श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत् सिंहासनेश्वरी चिदग्निकुण्डसंभूता देवकार्य समुद्यता उद्यद्भानुसहसभा चतुर्बाहुसमन्विता निजारुणप्रभापुर मज्जतब्रह्माण्डमण्डला। 
(अर्थ के लिये देखिये माई सहस्रनाम।)

(९) माई खड्गमाला संक्षेप में

खड्गमाला का पाठ अपनी रक्षा के लिये है यह नामावली अत्यन्त गुप्त और गूढ है और इसके अधिकारी भी माई के उत्तम भक्त ही हैं इस पर विस्तार से न लिखने का ही निश्चय किया गया था क्योंकि इससे एक तो ग्रन्थ के बढ़ जाने की संभावना थी और दूसरे आर्थिक समस्या से भी इस तरफ कल निराशा थी इसलिए इस विषय पर थोड़ा ही लिखकर छापने को दिया गया था लेकिन इस पर कई एक जगत्-कल्याण चाहनेवाली बहनोंने संदेश भेजा कि माई खड्गमाला। जो एक अमूल्य रत्न है उसे दुनिया से क्यों छुपा रखना ? हमारा तो जितना कल्याण हुआ है वह मुख्य तर माई खड्गमाला के पारायण से हुआ  है इसलिये इस पर कुछ विस्तार से लिखिये ताकि माई भक्त इस रत्न का पहिचानने से वंचित न हों-इसलिए इन बहिनों की पवित्र इच्छा को अपना कर और यह समझ कर कि जीवन का कोई भरोसा नहीं है इस शरीर से इस जीवन में जितनी हो सके उतनी माई भक्तों की सेवा करूं खड्गमाला के विषय में संक्षेप से कुछ लिखने को तैयार हुआ—विस्तार से ग्रन्थ बढ़ जाने का डर है इस लिये संक्षेप में ही लिख रहा हूं आशा है कि इससे इन बहनों को और अन्य माई भक्तों को संतोष और लाभ होगा।
जिस तरह एक रणवीर अनेक अस्त्र शस्त्रों से लैस होकर विजयी हो रणवीर बन जाता है उसी तरह माइ खड्गमाला के पारायण से मनुष्य को, माई भक्त को, इस लोक में हरेक तरह का लाभ और कल्याण प्राप्त होता है और मृत्यू के पश्चात परलोक में सद्गति और मुक्ति प्राप्त होती है ।

इस नामावली के प्रधान नाम इस प्रकार हैं:

( १ ) मदिरानन्दसुन्दरी-भक्त के प्रेम की मदिरा पीकर भक्त को आनन्द मेंडुबाने वाली मां। 
( २ ) समस्तसुरासुरवन्दिते-देव और दानव, सुर और असुर जिसको बन्दन करते हैं वह मां । 
(३) मदीयंशरीरंरक्षाकरी-मेरे शरीर की रक्षा करने वाली मां । 
( ४ ) नरांत्रमालाभरणभूषिते-अपने भक्तों की आत्माओं की माला गले में धारण कर सुशोभित मां । 
(५) महाकौलिनी-भक्तों के कुल की रक्षा करने में अत्यन्त चतुर और उसकी चिन्ता रखने वाली मां । 
(६) महाब्रह्मवादिनी-जिस के बारे में ब्रह्म नाम से अनेक पण्डित वाद-विवाद कर अपना जीवन जीते हैं वह मां।
 (७) महाघनोन्माद कारिणी-भक्तों को अत्यन्त उन्मादि बनाकर सभी तरह का अनुभव कराकर उन्नति करने वाली मां । 
(८) महाभोगप्रदे-उत्तम भोगों की देने वाली मां । 
(९) शरीर वज्रमयंकरी-शरीर को वज्र समान कठिन और व्याधि-रहित बनाने वाली मां। 
(१०) दुर्जनहंत्री- दुर्जन और दुष्मनों से भक्त को बचाने वाली मां (११) महिपालक्षोभिणी- राजाओं को भी अपने भक्त के आगे दीन बना देने वाली मां ।
(१२) जयंकरी-- विजय देने वाली मा। 
(१३) गगनगामिनी -- अपने भक्त को बहुत उंचा ले जानेवाली, आकाश तक पहुंचाने वाली मां। 
(१४) दिव्यांगी-- जिसका शरीर अमानुषी (दिव्य ) है । दिव्य अंगों वाली मां 
(१५) मोगदायिनी -- भोग और भोगने की शक्ति देने वाली मां 
(१६) महादेवी-- सब से बड़ी ईश्वरी मां 
(१७) परमेश्वरी -- स्त्री स्वरूप में परमेश्वर मां 
(१८) अरुणां-- गुलाबी रंग के अवयवों और आभूषणों वाली मां 
(१९) करुणांतरंगिताक्षी-- करुणासे जिसकी आंखें करुणासागर के तरंगों की तरह डोलती हैं वह मां
(२०) धृतपाशांकुशबाणचापहस्ता--जिसने अपने हाथ में पाश अंकुश बाणऔर धनुष्य धारण किये हैं वह मां
(२१) त्रिपुरसुन्दरि – त्रिपुटी ब्रह्म ईश्वर और जीव, ब्रह्मा विष्णु महेश
| इत्यादि और हरेक तरह की त्रिपुटी की स्वामिनी मां 
(२२) हृदयदेवी, शिरोदेवी, शिखादेवी-- हृदय में, मस्तक में, चोटीमें रहनेवाली मां 
(२३) कवचदेवी, नेत्रदेवी, अस्त्रदेवी, -- कवच ( बखतर ) में, आंखों में और अस्त्र शस्त्र में रहने वाली मां 
(२४) कामेश्वरि भगमालिनि, नित्यक्लिन्ना -- इच्छा पूर्ण करने वाली ऐश्वर्य (भग) की माला धारण करनेवाली और हमेशा भक्त के लिये कोमल हृदय रखनेवाली मां 
(२५) भेरुण्डे, वह्निवासिनि, महावज्रेश्वरि -- दुर्जनों को डरा देनेवाली अग्नि में रहनेवाली, और आपत्ति के समय में अपने भक्त को सहन शक्ति प्रदान कर वज्र जैसा बनानेवाली मां 
( २६) शिवदूति, त्वरिते, कुलसुन्दरि -- भक्त के हृदय में कल्याण का संदेशा पहुंचानवाली बिजली की तरह जल्दी काम करने वाली और अपने भक्त के कुटुम्ब को संभाल कर शोभा देनेवाली मां 
(२७) नित्ये, नीलपताके, विजये -- हमेशा भक्त के साथ रहनेवालो, पीली विजयपताका धारण करनेवाली और विजय देनेवाली मां 
(२८ ) सर्वमंगले, ज्वालामालिनि, चित्रे-- सब प्रकार का कल्याण करने वाली, अग्नि की माला धारण करने वाली जिसकी ज्योति है और रंग बिरंगे नाना प्रकार के नामरूप धारण करनेवाली मां 
(२९) महानित्या -- ऊपर कहे हुए अनेक स्वरूपों में मुख्य स्वरूप वाली औरआश्चर्ययुक्त अनेक प्रकार के चमत्कार करने वाली मां ।
(३० ) परमेश्वरपरमेश्वरि, मित्रेषमयि, षष्टीशमयि--जो परमश्वरकी भी परमेश्वरि है, जो भक्तकी सबसे बड़ी मित्र है और जो पञ्चब्रह्म से परे छठाब्रह्म है वह मां ।
(३१) उड्डीशमयि, चर्यानाथमयि, लोपामुद्रामयि -- जो भक्त के लिये उड्डयनकरने (उड़ने) को तैयार है, जो तपस्या का फल देनेवाली मालिक है और जो अवन्नति के पथपर जानेवाले भक्त को आश्वासन देकर उन्नति के मार्ग पर ले जाती है वह मां। 
(३२) अगस्त्यमयि, कालतापनमयि, धर्माचार्यमयि -- जो अगस्त्य ऋषि की तरह भव सागरको पी जानेकी ताकत देनेवाली है, जो काल को भी तपाने की शक्ति देनेवाली है, जो धर्म का गुरू बननेकी शक्ति देनेवाली है वह मां ।
(३३) मुक्तकेशीश्वरमयि, दीपकलानाथमयि, विष्णूदेवमयि, प्रभाकरदेवमयि, तेजोदेवमथि, मनोजदेवमयि, कल्याणदेवमयि, रत्नदेवमयि, वासुदेवमयि, श्रीरामानन्दमयि--जो मुक्त हुए लोगों की, केशव की, दैदीप्यमान तत्व की, विष्णू की, सूर्य की, तेज की, अनंग वा कामराज की, कल्याण की, रत्नों के सागर की वासुदेव की, श्रीकी, श्रीराम की, और सच्चिदानन्द की भी मां है । 
(३४) अणिमा, लघिमा, महिमा, ईशित्व, वशित्व, प्राकाम्य, मुक्ति, इच्छा प्राप्ति-जो सर्व प्रकार की सिद्धियों की माता और देनेवाली है वह मां । 
(३५) ब्राह्मी, माहेश्वरि, कौमारि, वैष्णावी, वाराहि, माहेन्द्रि, चामुण्डे,
महालक्ष्मी-ये सभी देवियां जिसका अंश रूप हैं वह मां। 
(३६) सर्वपक्षोभिणि, सर्वविद्राविणि, सर्वाकर्षिणि, सर्ववंशंकरि, सर्वोन्मादिनि सर्वमहांकुशे, सर्वखेचरि, सर्ववीजे, सर्वयोने सर्वत्रिखण्डे-सबको विचलित करने वाली, हराने वाली, खेंचने वाली, वश करने वाली, उन्मत बनाने वाली, अंकुश में रखने वाली, सब जगह दौड़ने वाली, सबका ( ४२ ) वशिनि, कामेश्वरि, मोदिनि, विमले, अरुण, जयनि, सर्वेश्वरि, कौलिनि मोदिनी-आनन्द देनेवाली । विमले-अन्त:करण की मलीनता दूरकरनेवाली मा ।
(४३ ) वाणिनि, चापिनि, पाशिनि, अंकुशिनि, महाकामेश्वरि, महावनेश्वरि, महाभगमालिनि, महाश्रीसुन्दरि- अर्थ स्पष्ट है। 
(४४) श्रीमहाभट्टारिके- महा रणवीर मां 
(४५) त्रिपुरे, त्रिपुरेशी, त्रिपुरसुन्दरि, त्रिपुरवासिनि, त्रिपुराश्री, त्रिपुरमालिनि त्रिपुरासिद्धे, त्रिपुराम्बे, महात्रिपुरसुन्दरि-भिन्न भिन्न त्रिपुरसुन्दरियोंके स्तुति नाम 
(४६) महामहामहेश्वरि, महामहाराज्ञी, महामहागुप्ते, महामहाज्ञप्ते,
महामहानन्दे, महामहास्पन्दे महामहामहाशये, महामहासाम्राज्ञी, श्रीमाईनगरस्वामिनि--महाइश्वरि, महाराणी, महाशक्ति, महागुप्त से गुप्त, महाज्ञान देनेवाली, महास्पन्दन (हिलन चलन, स्फूर्ति ) देनेवाली राजाओं की भी ( विश्व महामाता) राजमाता, माई भक्तों के नगर की स्वामिनी, मालिक की मालिक मां ।
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संक्षिप्त माई सहस्रनाम- (१०) 
यह माई सहस्रनाम से चुने हुए ५४ नामों का संग्रह है। जिन माई भक्तों को रोज माई सहस्रनाम के पाठ करने का समय नहीं है वे हर रोज इस संग्रह का पाठ कर सकते हैं ये चोपन नाम संक्षिप्त माई सहस्रनाम के शीर्षक नीचे दिये गये हैं ( न० १० ) अर्थ के लिये माई सहस्रनाम देखिये।
माईमार्कण्ड
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 ॐ श्री जयमाई
नाम जपः [१]
मा, मा, मा, मा, मा, मा, मा, मा, मा, माई, माई, माई, माई, माई, माई, माई, माई जयमाई, जयमाई, जयमाई, जयमाई - जयमार्कण्डमाई, जयमार्कण्डमाई, जयमार्कण्डमाई जयमार्कण्डरूपमाई, जयमार्कण्डरूपमाई जयमार्कण्डरूपमार्कण्डमाई, जयमार्कण्डरूपमार्कण्डमाई
मंत्र घोषः (२)
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं, ॐ ऐं ह्रीं श्री ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं, ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं, ऐं ह्रीं श्रीं की ऐं श्रीं जयमाई, ॐ श्रीं जयमाई, ऐं श्रीं जयमाई ऐं हीं श्रीं क्लीं जयमाई, ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं जयमाई ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चै जय माई जय माई ऐं क्लीं सौः ऐं क्लीं सौः, ऐं क्लीं सौः ऐं क्लीं सौ. क ए ई ल हीं, ह स क ह ल ही, स क ल हीं, ऐं जयमाई, जयमाई, जय माई, जय माई, जय माई
ॐ श्री जय माई
आवाहन स्तुतिः (३)
अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा । यःस्मरेत्पुंडरीकाक्षी स बाह्याभ्यंतरः शुचिः ॥ जयमाई गुरुभ्योनम: गुरुपादुकाभ्योनमः परेभ्यः पर पादुकाभ्यः । आचार्य सिद्धेश्वर पादुकाभ्योनमः माई पादुकाभ्योनमः ॥ जयमाई जयमाई, जयमाई, जय पृथ्विीमाई, त्वं धारय मां माईपवित्रं कुरु चासनम् । जयमाई. ऐं अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः । ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥ जयमाई ॐ ऐं महाकाल्यै नमः, ॐ ह्रीं महालक्ष्म्यै नमः । ॐ क्लीं महासरस्वत्यै नमः ॥ जयमाई ऐं अष्टभुजायै नमः। ह्रीं अष्टादशभुजायै क्लीं दशाननायै नमः ॥ जयमाईॐ गौर्या सह रुद्राय नमः । ॐ स्वरयासह विरिंचये नमः ॐ लक्ष्म्या सह हिषिकेशाय नमः ॥ जयमाई महिषाय नमः, सिंहायनमः । जयमाई कालाय नमः, मृत्यवे नमः । जयमाई जयमाई, जयमाई, जयमाई, जयमाई
 ॐ श्री जयमाई

अपराध क्षमा स्तुतिः (४)अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽहमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ।। आवाहन न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ।। मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । यत्पूजितं मयादेवी परिपूर्ण तदस्तु मे ॥ अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादय: सुराः ॥ सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके । इदानि मनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरुः ।। अज्ञाना द्विस्मृतेभ्रीन्त्या यन् न्यूनमधिकं कृतम् । तत्सर्व क्षम्यता देवी प्रसीद परमेश्वरि । कामेश्वरि जगन्मातः सचिदानंदविग्रहे । गृहाणाीमिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥ गुह्यातिगुह्यगोत्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिभवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरश्वरि ॥ जयमाई
ॐ श्री जयमाई
ध्यान-आवाहने ५
खड्गं चक्र गदेषु चाप परिघाशूल भुशुण्डिं शिरः । शङ्ख संदधतीं करैस्रनयनां सर्वांगभूषावृताम् ।। नीलाइमा ति मास्यपाद दशकां सेवे महाकालिकां । यामस्तोत्स्वपिते हरौ कमलजौ हन्तुं मधु कैटभम् ।। अक्षस्रक्परशू गदेशुकुलिशं पद्मं धनुः कुण्डिकाम् । दण्डं शक्तिमासिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम् ।। शूलं पाशसुदर्शनेच दधतीं हस्तै: प्रवालप्रभाम् । सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मी सरोजस्थिताम् ।। घण्टाशूलहलानि शंखमुसले चक्रं धनुः सायकम् । हस्ताजैर्दधतीं घनांतविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम् ।। गौरीदेह ससद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा । पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुभादिदैत्यादिनीम् ॥ जयमाई
विद्यद्दाम समप्रभा मृगपतिस्कंधिस्थितां भीषणाम् । कन्याभि: करवालखेट विलसद्धस्त भिरासे विताम् ।। हस्तैश्चक्रदरालिखेट विशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं । विभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गा त्रिनेत्रां भजे । जयमाई.
ध्यान आवाहन 6 
 कुलदेवी कुलांगना कुलान्तस्था कुलयोगिनी । कुलोतीर्णा कुलतारिणी। कुलोद्धारिणी ॥ जयमाई कुमारी च त्रिमूर्तिश्च कल्याणी रीहिणी तथा । कालिका चण्डिका चैव शांभवी संस्मृतां तथा । दुर्गा सुभद्रा चैताहि कुमार्यो नव कीर्तिताः ॥ ज यमाई प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ पञ्चमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च । सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरीति चाष्टमम् ॥ नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः ॥ जयमाई मातंगी भुवनेश्वरी च बगला धूमावती भैरवी । तारा छिन्नशिरोधरा भगवती श्यामा रमा सुन्दरी ॥ जयमाई बालार्क मंडलाभासां चतुर्बाहू त्रिलोचनाम् पांशांकुश शरांश्चापं धारयंती शिवां भजे ॥ जयमाई बालप्रेम समुल्लसच हृदय यागेन पद्मश्रिया । निष्कामं च वरेण विश्वजनता शुश्रूषण यत्नतः ॥ भाक्तं संयमकुशेन शरणस्वाहं परित्यागतः । ध्यायामो दिशतीं ध्वजेन परमां माई जगतपावनीम् ॥ जयमाई वात्सल्यामृतवार्षिणीं रसमयीं कारुण्यकल्लोलिनी । भक्तानन्दकरी च विश्वजननी पापात्कलौ तारिणीम् ।। माया शक्तिपरां प्रपतिसुलभां प्रीत्या रतां सर्वतः । मार्कण्डेयनुतां स्मिता वरयुतां माई वयं संश्रिताः ॥ जयमाई
ध्यान आवाहन 7 
ॐ श्री जयमाई
देवी सूक्तः जप ७ 
१. या देवी सर्वभूतेषु विष्णूमायेति शब्दिता। जयमाई २. या देवी सर्वभूतेषु चेतनेप्य भिधीयते । जयमाई ३. या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता । जयमाई ४. या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता। जयमाई ५. या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता । जयमाई ६. या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता । जयमाई ७. या देवी सर्वभतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता । जयमाई ८. या देवी सर्वभूतेष तृष्णारूपेण संस्थिता । जयमाई ९, या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता। जयमाई १०. या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता। जयमाई ११. या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता। जयमाई १२. या देवी सर्वभुतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता । जयमाई १३, या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता । जयमाई १४. या देवी सर्वभूतेषु कांतिरूपेण संस्थिता। जयमाई १५. या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता। जयमाई १६. या देवी सर्वभूतेषु धृतिरूपण संस्थिता । जयमाई १७. या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता । जयमाई 1८. या देवी सर्वभतेषु दयारूपेण संस्थिता । जयमाई १९. या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता । जयमाई २०. या देवी सर्वभुतेषु भ्रांतिरूपेण संस्थिता । जयमाई २१. या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। जयमाई
ध्यान आवाहन 8
ॐ श्री जयमाई
माइ आरति ८ १. नमोदेव्यै महादेव्यै शिवायै सतत नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम् ।। २. रौद्राय नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः ।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्य सुखाय सततं नमः ।। ३. कल्याण प्रणता वृद्धयै सिद्धयै कूम्र्यै नमो नमः ।
नेऋत्यै भुभतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥ ४. दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै ।
ख्यात्यै तथैव कृष्णाय धूम्रायै सततं नमः ॥ ५. अतिसौम्यातिरौद्रायै नतातस्य नमो नमः ।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ।। ॐ श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमसिहासनश्वरी । चिदग्निकुण्डसंभुता देव (भक्त) कार्य समुद्यता ।। उद्यानुसहस्रभा चतुर्बाहूसमन्विता । निजारुणप्रभापूरमजद्ब्रह्माण्डमण्डला ॥ जयमाई ॥
ध्यान आवाहन 9 
माई खड़गमालाह
 अथ माई खडगमाला प्रारभ्यते 
जयमाईहेतवे जगतामेव संमारार्णव सेतवे । प्रभव सयविद्यानां शिवाय गते नम ॐ ऐं ह्रीं श्रीं, श्रीं ह्रीं ऐं ॐ समयिनी । मदिरानन्दसुन्दरि समस्तसुरासुर वन्दिते ।। जयमाई मदीयं शरीरं रक्ष रक्ष परमेश्वरि हुंफट् स्वाहा ।
ॐ भुः स्वाहा ॐ भुवः स्वाहा ॐ स्व स्वाहा ॐ भुभुव: स्व: स्वाहाः। 
नरांत्रमालाभरणभुषिते महाकौलिनी महाब्रह्मवादिनी महाघनोन्मादकारिणी महाभोगप्रदेऽस्मदीयं शरीर वज्रमयं कुरु कुरु । दुर्जनान्ह नहन महीपालन्क्षोभय क्षोभय चक्रं भंजय भंजय जयंकरि गगनगामिनी समलवरयूं रमल वरयू यमलवरयूं भमलवरयूं श्री भैरवी प्रसीद प्रसीद स्वाहा जयमाई । देवी रक्षतु दिव्यांगी दिव्यांग भोगदायिनी । * रक्ष रक्ष महादेवी शरीरं परमेश्वरी ॥ जयमाई 
ऐं ह्रीं श्रींअरुणां करुणांतरगिताक्षी धृतपाशांकुशबाणचापहस्ताम् जयमाई । ऐं ह्रीं श्रीं ॐ नमस्त्रिपुरसुन्दरि जयमाई। 
हृदयदेवी, शिरोदेवी, शिखादेवी, कवचदेवी, नेत्रदेवी, अस्त्रदेवी जयमाई । कामेश्वरि, भगमालिनी, नित्य किन्ने, भेरुण्डे, वह्निवासिनी, महावज्रेश्वरि. शिवदूति, त्वरित, कुलसुन्दरि, नित्ये, नीलपताके विजये सर्वमंगले. ज्वालामालिनि, चित्रे, महानित्ये जयमाई। 
परमेश्वरपरमेश्वरि, मित्रेशमयि, षष्ठीशमयि, उड्डीशमयि, चर्यानाथमयि, लोपामुद्रायि, अगस्त्यमयि, कालतापनममि, धर्माचार्यमयि, मुक्तकेशीश्वरमयि, दीपकलानाथमयि, विष्णुदेवमयि, प्रभाकरदेवमयि, तेजोदेवमयि, मनोजदेवमयि, कल्याणदेवमयि, रत्नदेवमयि, वासुदेवमयि, श्रीरामानन्दमयि ॥ जयाई 
अणिमासिद्धे, लघिमासिद्धे, महिमासिद्धे, ईशित्वसिद्धे, वशित्वसिद्धे, प्राकाम्यसिद्धे, भुक्तिसिद्धे, इच्छासिद्धे, प्राप्तिसिद्धे, सर्वकामसिद्धे, जयमाई, 
जयमाई. ब्राह्मि, माहेश्वरि, कौमारि, वैष्णवि, वाराहि, माहेन्द्रि, चामुण्डे, महालक्ष्मि, जयमाई
सर्व संशोभिणि, सर्व विद्राविणि, सर्वाकर्षिणि, सर्ववशंकरि, सर्वोन्मादिनि, सर्वमहांकुशे, सर्वखेचरि, सर्वबीजे, सर्वयोने, सर्वत्रिखण्डे,त्रैलोक्यमोहनचक्रस्वामिनि, प्रकटयोगिनि ॥ जयमाई कामाकर्षिणि, बुद्ध्याकर्षिणि, अहंकाराकर्षिणि, शब्दाकर्षिणि, स्पर्शाकर्षिणि, रूपाकर्षिणि, रसाकर्षिणि, गन्धाकर्षिणि, चित्ताकार्षणि, धैर्याकार्षणि, स्मृत्याकार्षणि नामाकार्षणि, बीजाकार्षणि, आत्माकर्षिणि, अमृताकर्षिणि, शरीराकर्षिणि, सर्वाशापरिपूरकचक्रस्वामिनि, गुप्तयोगिनि ॥ जयमाई । अनंगकुसुमे, अनंगमेखले, अनंगमदने, अनंगमदनातुरे, अनंगरेखे, अनंगवेगिनि, अनंगांकुशे, अनंगमालिनि, सर्वसंक्षोभणचक्रस्वामिनि, गुप्ततरयोगिनि ।। जयमाई सवर्सलोभिणि, सर्वविद्राविणि, सर्वाकार्षणि, सर्वाह्लादिनि, सर्वसंमोहिनि, सर्वस्तंभिनि, सर्वāभिणि, सर्ववशंकरि, सर्वरञ्जनि, सर्वोन्मादिनि, सर्वार्थसाधिनि, सर्वसंपत्पूरिणि, संवमंत्रामयि, सर्वद्वंद्वक्षयकरि, सर्वसौभाग्यदायकचक्रस्वामिनि संप्रदाययोगिनि ॥ जयमाई सर्वसंपत्प्रदे, सर्वसिद्धिप्रदे, सर्वप्रियकरि, सर्वमंगलकारिणि, सर्वकामप्रदे, सर्वदुःखविमोचिनि, सर्वमृत्युप्रशमनि, सर्वविघ्ननिवारिणि, सर्वांगसुंदरि, सर्वसौभाग्यदायिनि, सर्वार्थसाधकचक्रस्वामिनि कुलोत्तीर्णयीगिनि ॥ जयमाई सबने. सर्वशक्ते, सर्वैश्वयप्रदे, सर्वज्ञानमयि, सर्वव्याधिविनाशिनि, सर्वाधारस्वरूपे. सर्वपापहरे, सर्वानन्दमयि, सर्वरक्षास्वरूपिणि, सर्वेप्सितप्रदे, संवरक्षाकरचक्रस्वामिनि निगर्भयोगिनि । जयमाई वशिनि, कामेश्वरि, मोदिनि, विमले, जयनि, सर्वेश्वरि, कौलिनि, सर्वरोगहरचक्रस्वामिनि, रहस्ययोगिनि ।। जयमाई.
 बाणिनि, चापिनि, पाशिनि, अंकशिनि, महाकामेश्वरि, महावज्रेश्वरि, महाभगमालिनि, महाश्रीसुन्दरि, सर्वसिद्धिप्रदचक्रस्वामिनि अतिरहस्ययोगिनि ।। जयमाई श्रीमहाभट्टारिके सर्वानन्दमयचक्रस्वामिनि, परापररहस्ययोगिनि, जयमाई त्रिपुरे, त्रिपुरेशि, त्रिपुरसुन्दरि, त्रिपुरवासिनि, त्रिपुराश्रि, त्रिपुरमालिनि, त्रिपुरासिद्धे, त्रिपुराम्बे महात्रिपुरसुंदरि ॥ जयमाई, महामहामहेश्वरि,महामहामहाराज्ञि, महामहामहाशक्ते, महामहामहागुप्ते, महामहामहाग्यप्ते, महामहामहानन्दे,महामहामहास्पन्दे, महामहामहाशये, महामहासाम्राज्ञि, श्रीमाईनगरस्वामिनि नमस्ते, त्रि:वाहा ॐ श्रीं ह्रीं ऐं ॥ जयमाई, जयमाई
ध्यान  आवाहन ( 10 )
 संक्षिप्त माईसहस्रनाम ॥ (१०) 
१ श्रीमाता जयमाई, ( १ ) २ श्रीमहाराज्ञी जयमाई, (२) ३ चिदाग्निकण्डसंभूता जयमाई (४) ४ निजारुणप्रभापूरमज्जद्ब्रह्माण्डमण्डला ।। जयमाई ( १२ ) ५ चम्पकाशोकपुन्नागसौगन्धिकल सत्कचा । जयमाई ( १३ ) ६ कुरुविन्दमणिश्रेणीकनत्कोटीरमण्डिता । जयमाई ( १४.) ७ वक्त्रलक्ष्मीपरीवाहचलन्मीनाभलोचना । जयमाई (१८) ८ कर्पूवीटिकामोदसमाकर्षदिगन्तरा । जयमाई (२६) ९ रत्नकिंकिणिकारम्यरशनादामभूषिता । जयमाई (३८) २० नखदीधितिसंछन्नमज्जनतमोगुणा । जयमाई (४४) ११ कामाक्षी जयमाई(६२)१२करड्-गुलिनखोप्तन्ननारायणदशाकृति । जयमाई ८० १३ ब्रह्मग्रन्थि विभेदेनी जयमाई (१००)१४ बिसतन्तुतनीयसी । जयमाई १११ २५ भक्तिवश्या जयमाई ( १२० ) १६ शरच्चन्द्र निभानना जयमाई ( १२९) १७ शन्तिमति जयमाई ( १३१) १८ मोहनाशिनि जयमाई, (१६३) १९ पापनाशिनि जयमाई (१६७) २० भवनाशिनी जयमाई, ( १७५) २१ भेदनाशिनि जयमाई,( १७९) २२ सर्वमंगला जयमाई (२००) २३ महात्रिपुरसुन्दरि जयमाई, (२३४) २४ नामरूपविवर्जिता जयमाई(३००) २५ करुणारससागरा जयमाई ( ३२६) २६ व्यापिगि जयमाई (४०० २७ लोलाक्षी जयमाई (४५४ ) २८ मांस निष्ठा (५००) २९ सर्वव्याधिप्रशमनि जयमाई ( ५५१) ३० कलिकल्मषनाशिनी जयमाई ( ५५५ ) ३१ ताम्बूलपूरतिमुखी जयमाई ( ५५९) ३२ दक्षयज्ञविनाशिनी जयमाई (६००) ३३ अनेककोटिब्रह्माण्डजननी जयमाई ( ६२०) ३४ अन्नदा जयमाई (६६९) ३५ वसुदा जयमाई (६७०) ३६ सच्चिदानन्दरूपिणी जयमाई ( ७००) ३७ कोमलांगी जयमाई ( ७२१) ३८ प्रेमरूपा जयमाई (७३०) ३९ लास्यप्रिया जयमाई (७३८) ४० भक्तचित्तकेकिघनाधना जयमाई ( ७४७ ) ४१ अपर्णा जयमाई (७५४) ४२ सामरस्यपरायणा जयमाई (७९२) ४३ रसशेवधि: जयमाई ( ८००) ४४ मुनिमानसहंसिका जयमाई ( ८१६ ) ४५ विश्वभ्रमणकारिणी जयमाई ( ८८९) ४६ नैष्का जयमाई (९००) ४७ कल्या जयमाई (९०३) ४८ मनस्विनी जयमाई ( ९३०) १९ मानवती जयमाई ( ९३१) ५० बाला-जयबाले जयमाई ( ९६५) ५१ लीलाविनोदिनी जयमाई ( ९६६),
 ५२ बिन्दुतपर्णसंतुष्टा । जयमाई ९७४ ५३ अव्याजकरुणामूर्तिः जयमाई ९९२ ५४ ललिताम्बिका । जयमाई (१०००)